Sunday, December 26, 2010

दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

नवविवाहिता के दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबाओ के पास सैकड़ो बकरो और मुर्गो की चढ़ती बलि
बैतूल से रामकिशोर पंवार की रिर्पोट
बैतूल। माता पिता अपनी लड़की की शादी में कूलर फ्रीज वाशिंग मशीन कलर टी
.वी. से लेकर वो तमाम वस्तुुु देता है जो उसकी औकत में होती है. इन सबके अलावा वर पक्ष को दहेज के रूप में बिना मांगे उस गांव का दैय्यत बाबा भी मिल जाता है जो कि उस लड़की के साथ उसकी ससुराल में तब तक रहता है जब तक कि उसके पहले पुत्र या पुत्री की चोटी उसके स्थान पर ना उतारी जाये . कहने सुनने में आपको भले ही यह बात अजीबोगरीब अधंविश्वासी लगे पर मध्यप्रदेश के बैतूल जिले की मुलताई तहसील के सैकड़ो गांवो में आज भी मौजुद दर्जनो दैय्यत बाबा अपने क्षेत्र की लड़की के साथ दहेज में बेगानी शादी मे अब्दुला दिवाना की तरह जाते है. इससे बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य और क्या होगा कि लड़के के गांव का दैय्यत बाबा के पास उसके पहली संतान की चोटी सिर के बाल नही उतारे जाते है. जब तक उसके सिर के बालो की लट उतारी नही जाती तब तक उस बच्चे के सिर के बाल काटे नही जाते है. ऐसा आज से नही बल्कि सैकड़ो सालो से हो रहा है. इस बरसो से चली आ रही अंधविश्वासी रूढ़ीवादी प्रथा का पालन करने वालों में इस मुलताई तहसील का गरीब मजदूर वर्ग से लेकर धन्नासेठ यहाँ तक कि आम आदमी से लेकर ऊँची पहँुच पर जा पहँुचा बड़ा आदमी भी बाध्य है. कुछ लोग तो विदेशो से आकर भी अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास अपने बालक की चोटी उतारने आ चुके है. लोग आज भले ही यह कहे कि भारतीय समाज में पहले रूढिय़ा अपना सिक्का जमाती है जो बाद में प्रथाये और परंपरा का रूप धारण कर लेती है. आज कई साल बीत जाने के बाद भी लोगो मे आई जनजागृति के बाद भी लोगो के मन मंदिर में बैठा विश्वास डोल नही पाया है. हमारे भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही कई रूढिय़ा परम्पराये विद्यमान है. पंवारों की रियासत धारानगरी पर मुगलो शासको के के लगातार आक्रमणों से लड़ती थकी हारी एवं धर्म परिवर्तन के डर से घबराई पंवारों राजपूतो की फौज ने जानमाल की सुरक्षा के लिए धारा नगरी को छोडऩा उचित समझा धारा नगरी छोड़ कर गोंड़वाना क्षेत्र में आकर बसे पंवार राजपूतो के वंशजो ने इस क्षेत्र में स्वंय की पहचान को छुपा कर स्वंय की पहचान भोयर जाति के रूप में कराई और वे यही पर बस गये. आदीवासियो के बीच रह कर उनके आवार विचार तथा रहन सहन से सीख कर वे भी आदीवासी क्षेत्र मे मौजुद बाबा भगतो के चक्कर में आकर उन्ही की तरह दैय्यत बाबाओं के पास जाकर मन्नते मांगने लगे. जब उनकी तथाकथित मन्नते पुरा होने लगी तो वे बाबा दैय्यत बाबाओं को खुश करने के लिए उसके पास मुर्गा बकरा की बलि देने लगे. यँू तो बैतूल जिले की मुलताई तहसील प्रमुख रूप से पंवार समाज का बाहुल्य है. पंवार (भोयर) समाज में वर्तमान समय में चुट्ïटी (चोटी) नामक परंपरा विद्यमान है, जो कि एक मन्नत का रूप होती है. जिसमें अपने पहले बच्चे की चोटी उतारी जाती है जो कि हिन्दू माह माहो से वैशाख तक जारी होती है. इन महिनों में चोटी का कार्यक्रम अधिकांशत: बुधवार एवं रविवार के दिन होता है. एक दिन में अलग-अलग अपने-अपने दैयत बाबा जिनके अलग अलग नाम होते है जैसे खंडरा देव बाबा, एलीजपठार वाले दैय्यत बाबा देव बाबा के पास सैकड़ों की तादाद में चोटी का कार्यक्रम होता है. एक जानकारी के अनुसार एक ही दैय्यत बाबा के पास एक दिन में दस-दस चोटी के कार्यक्रम होते है . हर ग्राम में अलग-अलग नामो से विचरित देव (दैय्यत बाबा) के समक्ष उस ग्राम की विवाहिता पुत्री अपने पहले बच्चे के नाम से जो मन्नते करते है . यह पांच साल से 11 साल तक के बच्चो (चाहे वह लड़का हो या लड़की) के नाम से दैय्यत बाबा के समक्ष मुर्गे या बकरे की बलि दी जाती है. बच्चों को नये कपड़े, मिठाई आदि दी जाती है . जिसे प्रसाद स्वरूप कार्यक्रम में आये व्यक्तियों द्वारा मिल बांट कर ग्रहण किया जाता है. ग्राम चौथिया , चिल्हाटी, करपा, बरई , एनस,तुमड़ीडोल, मुलताई, पारबिरोली सहित सैकडो गावों में कोई ना कोई चोटी उतारने का कार्यक्रम होते रहता है. ग्राम चिल्हाटी के दुर्गेश बुआडे जिसके पिता स्वर्गीय बिरज बुआड़े भगत का काम करते थे तथा क्षेत्र के जाने माने भगत हुआ करते है. दुर्गेश बुआडें कहते है कि हिन्दू धर्म के सभी समाज में यह चोटी के कार्यक्रम होते है. जिसके भले ही नाम बदल दिये गये हो. चोटी बच्चों की सलामती हेतु एक मन्नत का नाम है. जिसके पुरा होने पर मन्नत मांगने वाला व्यक्ति अपनी पहली संतान से प्रारंभ करता है. अकसर विवाहिता पुत्री के पुत्र या पुत्री की ही चोटी उतारी जाती है. अगर पति पत्नि दोनो एक ही गांव के हो तो फिर ही उसी गांव के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने का कार्यक्रम होता है.यदि किसी लड़की की ससुराल किसी गांव की होती है तो उसे अपने ससुराल जाकर ही उस दैय्यत बाबा के पास जाकर अपने पहले पुत्र या पुत्री की चोटी 5 से 11 वर्ष के भीतर उतारी जाती है. चोटी कार्यक्रम दैय्यत बाबा के दरबार मे उस गांव के भगत बाबा के द्घारा पूजा पाठ करके बकरे या मुर्गे की बलि दी जाती है. चोटी उतारने वाला व्यक्ति दैय्यत बाबा के दरबार में अपने स्वजनों के साथ मिलकर करते है. अधिकांशत: हर परिवार में यह कार्यक्रम होते है. चोटी के संबंध में मान्यता है कि पहले बच्चों को जब तक चोटी नहीं उतारी जाती है तब तक दैय्यत बाबा उसे सताता रहता है. इसके अतिरिक्त जो मन्नते होती है वह पूरी की जाती है .पवारी बोली में लोग इसे जल्दी में इसे चुट्ïटी भी कहते है . पंवार समाज समाजसेविका सुश्री कौशल्या पंवार ने बताया कि यह परंरपरा समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी से विद्यमान है, जब से उन्होंने होश संभाला तब से वह देख रही है. अर्थात इसके पहले से प्रारंभ है. सुश्री कौशल्या पंवार कहती है कि हालाकि इस तरह के कार्यक्रम में काफी रूपैया पैसा खर्च होता है लेकिन लोगो को समझा पाना भी असंभव है. कुछ लोग तो अपनी ससुराल के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने के बाद अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास भी बकरे की बलि देते है. पूर्व केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री सुश्री मेनका गांधी भले ही इंडिया टी.वी.पर जीने की राह कार्यक्रम दिखा कर इस तरह की जीव हत्या से लोगो को सचेत करे लेकिन बैतूल जिले में आज भी लोगो के बीच फैले अंधविश्वास और उनके रूढ़ीवादी संस्कारों के चलते हजारों बकरे बेमौत मर रहे है.





इति
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